आजकल पत्रकारों के लिये सबसे बड़ी चुनौती है, खालिस पत्रकार के रूप में बचे रहना। एक तो सैलरी कम है, दूसरा बुढ़ापे में बेरोजगारी का खतरा रहता है, सबसे इनसिक्योर नौकरी है। फिर प्रलोभन भी कई हैं। राजनीतिक दल में जा सकते हैं, प्रवक्ता बन सकते हैं, किसी के जनसंपर्क अधिकारी बन सकते हैं, एक्टिविज्म के फील्ड में भी अब सातवां वेतन आयोग टाइप सैलरी मिलती है, किसी आयोग या संस्थान के सचिव-अध्यक्ष हो सकते हैं, किसी बड़े मंत्री या अधिकारी के लाइजनर बन सकते हैं, सरकारी तंत्र का सहयोग लेकर खुद का ही बड़ा धंधा शुरू कर सकते हैं, पत्रकार रहते हुए भी ट्रांसफर पोस्टिंग और ठेके दिलाने का साइड धंधा शुरू कर सकते हैं।
इसके बावजूद कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को जो ऊंचे पदों पर रह चुके हैं, बुढ़ापे में भी खालिस पत्रकारिता करते हुए देखता हूँ तो मन श्रद्धा से झुक जाता है। ईश्वर से इतनी ही प्रार्थना है कि ऐसी सुविधा देना कि बुढ़ापे में भी पत्रकारिता के पैसों से ही गुजारा हो जाये। कभी ऐसी नौबत न आये कि ऊपर वाले किसी विकल्प को चुनना पढे।
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