Tuesday 26 September 2017

बीएचयू के वीसी ही देश का सौभाग्य हैं ।

सौभाग्य और नया इंडिया का ब्रांड अंबेसडर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को बना देना चाहिए। ये देश का सौभाग्य है कि बीएचयू को ऐसा योग्य वीसी मिला है। उन्हें ब्रांड अंबेसडर न बनाया जाना सौभाग्य के लिए दुर्भाग्य होगा। नया इंडिया के लिए उनके विचार 'गया इंडिया' का अहसास कराएँगे। नया ईंवेंट आ गया है। नया ब्रांड अंबेसडर भी आना चाहिए।

भारत की लड़कियाँ अपना रास्ता तय करेंगी। उनके परिवार के लोग देखें कि नया इंडिया के नाम पर सारा ख़र्चा विज्ञापन में हो रहा है या ज़मीन पर भी कुछ हो रहा है। वाइस चांसलर की गरिमा गिराने का श्रेय पूर्ववर्ती और मौजूदा सरकार दोनों को जाना चाहिए। राज्य सरकारें भी चापलूस भरने में कम नहीं हैं। एक ही वीसी क्यों, आप लाइन से देखिए, क्या हालत हो गई शिक्षा संस्थानों की। जानबूझ कर यूनिवर्सिटी को बर्बाद किया जा रहा है ताकि नौजवान राष्ट्रवाद की आड़ में हिन्दू मुस्लिम टॉपिक खेलते रहें। आप पास के किसी भी यूनिवर्सिटी चले जाइये, नया इंडिया गया इंडिया लगेगा। बोगस स्लोगन से राष्ट्र का निर्माण नहीं होता है।

आप जिन थर्ड क्लास नेताओं की भक्ति में झोंटा झोंटी करते रहते हैं, उनकी पूजा ख़त्म हो गई हो तो ज़रा अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए सोचें। क्या यूनीवर्सिटी को बर्बाद कर देने में भी आप अपना भला समझ रहे हैं? लड़कियों के साथ हुई छेड़खानी का मामला इतना बड़ा तो था कि वीसी तुरंत हस्तक्षेप कर सकते थे। इससे उनकी तारीफ ही होती। बाहरी बाहरी ऐसे किये जा रहे हैं जैसे अपने छात्रों को कम बाहरी को ही ज़्यादा जानते हों। कई बार कहा कि बीएचयू में पेट्रोल बम चलते हैं, जिस तरह से बम बम कर रहे थे, लगा कि पेशावर यूनिवर्सिटी के वीसी से बात कर रहा हूँ। अगर बीएचयू में इतनी आसानी से बम चलते हैँ तो इसे देशहित में जेएनयू बनाना अपरिहार्य हो जाता है। जेएनयू में छात्र पढ़ाई के साथ राजनीति भी करते हैं। कोई बम नहीं चलाता। टैंक की सबसे अधिक ज़रूरत बीएचयू को है। सरकार तत्काल टैंक उपलब्ध कराए ताकि जब बीएचयू में पेट्रोल बम चले तो वीसी साहब टैंक में बैठकर मोर्चे पर जा सकें।

ये तर्क और कुछ नहीं सिर्फ और सिर्फ हिन्दू मुस्लिम ज़हर में गहरे यक़ीन से आते हैं। चाहें अपने बच्चे बर्बाद हो जाएँ , पुलिस लाठियों से लड़कियों को पीट दे, जनता हिन्दू मुस्लिम नफरत से बाहर निकलकर इसे नोटिस भी नहीं करेगी। जब आप चुनाव के लिए राजनीति नहीं करते तो यही बता दीजिए कि ये एक से एक वीसी कहाँ से और किसलिए लाए हैं। किस बात का गुस्सा है जो आप देश के नौजवानों से निकाल रहे हैं। नौजवान बता दें कि ये कौन सा फ़िज़िक्स का सवाल है कि विनाश का खेल समझ नहीं आ रहा है।

Friday 18 August 2017

आजकल पत्रकारों के लिये सबसे बड़ी चुनौती है, खालिस पत्रकार के रूप में बचे रहना। एक तो सैलरी कम है, दूसरा बुढ़ापे में बेरोजगारी का खतरा रहता है, सबसे इनसिक्योर नौकरी  है। फिर प्रलोभन भी कई हैं। राजनीतिक दल में जा सकते हैं, प्रवक्ता बन सकते हैं, किसी के जनसंपर्क अधिकारी बन सकते हैं, एक्टिविज्म के फील्ड में भी अब सातवां वेतन आयोग टाइप सैलरी मिलती है, किसी आयोग या संस्थान के सचिव-अध्यक्ष हो सकते हैं, किसी बड़े मंत्री या अधिकारी के लाइजनर बन सकते हैं, सरकारी तंत्र का सहयोग लेकर खुद का ही बड़ा धंधा शुरू कर सकते हैं, पत्रकार रहते हुए भी ट्रांसफर पोस्टिंग और ठेके दिलाने का साइड धंधा शुरू कर सकते हैं।
इसके बावजूद कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को जो ऊंचे पदों पर रह चुके हैं, बुढ़ापे में भी खालिस पत्रकारिता करते हुए देखता हूँ तो मन श्रद्धा से झुक जाता है। ईश्वर से इतनी ही प्रार्थना है कि ऐसी सुविधा देना कि बुढ़ापे में भी पत्रकारिता के पैसों से ही गुजारा हो जाये। कभी ऐसी नौबत न आये कि ऊपर वाले किसी विकल्प को चुनना पढे।

Friday 16 September 2016

सेवा में ,
 माननीय श्री नरेन्द्र मोदीजी,
 प्रधानमंत्री , भारत सरकार , नई दिल्ली

विषय- आरक्षण का आधार आर्थिक किये जाने हेतु संविधान - संशोधन एवं पदोन्नति में आरक्षण के बिल को निरस्त किये जाने विषयक |

  माननीय महोदय ,
      सौभाग्य की बात है कि बहुत समय बाद भारत में आपके कुशल नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की केन्द्रीय सरकार विद्यमान है| आपके मेक इन इंडिया व स्वच्छता अभियान जैसी कई योजनाओं का हम पूर्ण समर्थन करते हैं |
    माननीय महोदय , जैसा कि आप जानते हैं कि समाज के पिछडे वर्गों के लिये संविधान में मात्र दस वर्षों के लिये आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी , किन्तु जातिवादी व निहित कारणों से जाति आधारित आरक्षण की अवधि व क्रीमीलेयर की सीमा को  बारंबार बिना समीचीन समीक्षा के बढाया जाता रहा है| आज तक ऐसे आरक्षणप्राप्त डॉक्टर, इंजीनियर,पत्रकार ,प्रोफेसर , शिक्षक, कर्मचारी किसी ने नहीं कहा कि अब वह दलित या पिछड़ा नहीं रह व उसे जातिगत आरक्षण नहीं चाहिये !
  इससे सिद्ध होता है कि आरक्षण का आधार पिछड़ा वर्ग या समूह के बजाय जाति किये जाने से कोई लाभ नहीं हुआ|
महोदय , इस जाति आरक्षण का लाभ जहां कुछ खास लोग परिवार समेत पीढी दर पीढी लेते जा रहें हैं वहीं वे इसे निम्नतम स्तर वाले जरूरतमंदों तक भी नहीं पहुंचने दे रहे हैं | ऐसे तबके को वे केवल अपने लाभ हेतु संख्या या गिनती तक ही सीमित कर दे रहे हैं |
आरक्षण का आधार जाति किये जाने से सामान्य वर्ग के तमाम निर्धन व जरूरतमंद युवा बेरोजागार व हतोत्साहित हैं , कर्मचारी कुंठित व उत्साहहीन हो रहे हैं |
  अत: आपसे निवेदन है कि राष्ट्र के समुत्थान व विकास के लिये संविधान में संशोधन करते हुये आरक्षण का आधार आर्थिक कराने का कष्ट करेंगे , जिससे कि किसी भी जाति - धर्म के असल जरूरतमंद निर्धन व्यक्ति को आरक्षण का लाभ मिलना सुनिश्चित हो सके |
 यह आरक्षण एक परिवार से एक ही व्यक्ति , केवल बिना विशेष योगयता / कार्यकुशलता वाली समूह ग व घ की नौकरियों में मूल नियुक्ति के समय ही दिया जाना चाहिये !
 आयकर की सीमा में आने वाले व्यक्ति के परिवार को आरक्षण से वंचित किया जाना चाहिये ताकि राष्ट्र के बहुमूल्य संसाधनों का सदुपयोग सुनिश्चित सके !

 पदोन्नति में आरक्षण पूर्णत: बंद कराया जाना चाहिये जिससे कि योग्यता, कार्यकुशलता व वरिष्ठता का निरादर न हो |

   आशा है कि महोदय राष्ट्र व आमजन के हित में  इन सुझावों पर ध्यान देते हुये समुचित कार्यवाही करने व इस हेतु जन जागरण अभियान प्रारंभ कर मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने  का कष्ट करेंगे |

 
भवदीय......
भारतेषु

Tuesday 28 June 2016

                                                      मेरी आवाज़             
पत्रकारिता (मीडिया) का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ रहा है। इसके बावजूद यह पेशा अब संकटों से घिरकर लगातार असुरक्षित हो गया है। मीडिया की चमक दमक से मुग्ध होकर लड़के लड़कियों (विद्यार्ति) की फौज इसमें आने के लिए आतुर है। बिना किसी तैयारी के ज्यादातर नवांकुर पत्रकार अपने आर्थिक भविष्य का मूल्याकंन नहीं कर पाते।
पत्रकारिता या मीडिया का ग्लैमर ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। ज्यादातर लोग तो दूर से इसके ग्लैमर पर ही मोहित होकर पत्रकारिता में आते है। पत्रकारिता में कदम रखने से पहले आधे से भी अधिक विद्यार्थियों को इसकी अहमियत की भान तक नहीं होता। पत्रकारिता कोई सरकारी दफ्तर की तरह नहीं है जब मन तब आए और जब मन किया घर चले गए। दफ्तर का माहौल भी बदल गया है मगर पत्रकारों के हालात में तनिक भी बदलाव नहीं आया।
पिछले कुछ वर्षो की तुलना करे तो शायद इस क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करने में कोई रूचि नहीं रखता था पर आज के दौर में तो शिक्षा और नौकरी को लेकर दौड़ लगी हुई है। लाखों की फीस देकर ज्यादातर लड़के लड़किया पढाई कर रहे है और मीडिया का ज्ञानार्जन करके चैनलों में नौकरी पा रहे है।
सामाजिक जीवन में चलने वाली घटनाओं, झंझावातों के बारे में लोग जानना चाहते हैं, जो जानते हैं वे उसे बताना चाहते हैं । जिज्ञासा की इसी वृत्ति में पत्रकारिता का उद्भव हुआ। पत्रकारिता जहाँ लोगों को उनके परिवेश से परिचित कराती है, वहीं वह उनके होने और जीने में सहायक है । 
वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों का दर्पण है । वह हमारे परिवेश में घट रही प्रत्येक सूचना को हम तक पहुंचाती है । देश-दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों, कार्यों को हमें बताती है । 
यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र की कसौटी पर कसने का साधन बन गई है । 
“पत्रकारिता पूरे विश्व की ऐसी देन है जो सबमें दूर दृष्टि प्रदान करती है ।वास्तव में प्रतिक्षण परिवर्तनशील जगत का दर्शन केवल पत्रकारिता के द्वारा ही संभव है ।
                                                                                                         

                                                                                                             -भारतेषु माथुर

Saturday 18 June 2016

जर्नलिज्म और मास मीडिया की शिक्षा के नाम पर
            छात्रो को बनाया जा रहा है बेवक़ूफ़

वैसे तो टीवी चैनलों में हजारों रिपोर्टर्स होते हैं लेकिन उनमें से चंद नाम ही ऐसे हैं, जो लोगों के दिलों में अपनी गहरी पैठ बना पाए हैं. जबरदस्त प्रतियोगिता के दौर में आज टीवी रिपोर्टर के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि वह सबसे पहले अपने चैनल में न्यूज ब्रेक करे जो पूरी तरह से विश्वसनीय हो. हर रिपोर्टर की यही ख्वाहिश रहती है कि उसे भीड़ से अलग पहचान मिले लेकिन हर कोई सितारा नहीं बन पाता.

वजहः अनुभव और ट्रेनिंग का अभाव. वैसे देश भर में हजारों की तादाद में मीडिया स्कूल खुल गए हैं लेकिन कई स्कूल विद्यार्थियों को प्रायः दिशाहीन बनाकर केवल भ्रमित कर रहे हैं. चौबीसों घंटे के चैनल में संपादकों के पास इतना टाइम नहीं है कि हर खबर पर रिपोर्टर से सलाह-मशविरा कर दिशा-निर्देश कर सकें.

 आज न्यूज़ चैनल में इंटर्नशिप करके पता चला हैै  जर्नलिज्म में जो विषय पढ़ाये जाते है  में उसका कोई उपयोग नहीं है,जब तक उसे वास्तविक में पढ़ाया और समझाया न जाये।

प्रायः देखने में आता है कि इंटर्नशिप के लिए आने वाले विद्यार्थी न्यूज रूम में आने के बाद अवाक्‌ रह जाते हैं क्योंकि उन्होंने संस्थान में जो पढ़ा और चैनल में जो देख रहे हैं, उसमें वे कोई तालमेल नहीं बिठा पाते.
जितने भी मीडिया स्कूल्स है उन्हें उन कार्यकर्ताओ का
व्याख्यान लगवाना चाइये जो किसी न्यूज़ चैनल या अखबार से संबंध हो और जिसे जानकारी हो की न्यूज़ चैनल और अखबार में कैसे काम होता है।

खबर का स्त्रोत क्या है, उसकी विश्वसनीयता कैसे जानी जाए, दमदार स्क्रिप्ट कैसे लिखी जाए, पीटीसी क्या है और खबर को स्टोरी बनाकर कैसे संपादित किया जाए, रिपोर्टिंग करते हुए कैमरे का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से कैसे हो.....मेरे ख्याल से इन सब सवालो का जवाब एक न्यूज़ चैनल या अखबार में कर रहे पत्रकार से बेहतर कोई और नहीं दे सकता।
 
                                           -भारतेषुु माथुर
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